मात्र 29 वर्ष की आयु में जनतंत्र के लिए जेल में 84 दिन के आमरण अनशन से अपने प्राण न्योछावर करने वाले श्रीदेव सुमन की शहादत को देश में वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह हकदार थे | एक परिवार और पार्टी के इतिहास पर एकाधिकार और तत्कालीन सत्तालोपी आलोचकों ने उनके बलिदान को राजशाही के खिलाफ बलिदान तक ही सीमित कर दिया था | लेकिन जनता में उनकी शहादत के प्रति कर्तज्ञ्ता और उनके विचारों की स्वीकार्यता के चलते ही उनकी पुर्ण्य तिथि सरकारी माध्यम से ही सही सुमन दिवस के रूप में गौरव महसूस करने का मौका देती है | फिलहाल इस चर्चा को यही विराम देते हुए हम याद करते हैं उनके अविस्मरणीय योगदान को ………..
स्वतन्त्रता से पूर्व उत्तराखंड के टिहरी में जन्मे श्री दत्त बडोनी ने देशसेवा से हटकर सामान्य राह चुनी होती तो वह देशदुनिया के जाने-माने साहित्यकार होते या देशप्रदेश में मंत्री, मुख्यमंत्री होते | लेकिन आज़ादी के इस मतवाले ने टिहरी रियासत और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ प्राणोत्सर्ग का फैसला लिया जिनहे आज हम श्रीदेव सुमन के नाम से जानते हैं | जन अधि कारों की लड़ाई के लिए जेल में मात्र 29 साल की उम्र में 84 दिन का कठिन आमरण अनशन से शहीद हुए । |
प्रजातन्त्र की लड़ाई के सबसे बड़े नायक श्री देव सुमन जी का जन्म 25 मई 1916 में उत्तराखंड के टिहरी जिले के जोल गांव में हुआ था । पिता एक डॉक्टर एवं माता ग्रहणी थी | ये वो समय था, जब अंग्रेजों की शह पर गढ़वाल के राजशाही घराने का हुक्म जनता पर चलता था | अपनी शुरुआती पढाई टिहरी राज्य से ही करने के बाद वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह देहरादून चले गये | यहाँ अपने छात्र जीवन से ही गाँधीवादी विचारधारा प्रेरित सुमन जी ने नमक सत्याग्रह आन्दोलन में भी अपना योगदान दिया, जिस कारण उन्हें 14 दिन की जेल भी हुई, वह अपने आगे की पढाई के लिए दिल्ली चले गए ।
साहित्य में योगदान – उन्होने साहित्य से संबन्धित रत्न भूषण, प्रभाकर, विशारद एवं साहित्य रत्न जैसे अनेक परीक्षाएँ पास की थी | दिल्ली में उन्होंने 1932 में अध्यन-अध्यापन के साथ ‘सुमन सौरभ’ नामक एक कविता संग्रह भी प्रकाशित किया । वह उस समय की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं हिन्दू, धर्मराज, राष्ट्रमत, कर्मभूमि के सम्पादन से भी जुड़े रहे | उन्होने एक कुशल संघटनकर्ता के तौर पर बहुत सारी समाज सेवी संस्थाओ की भी स्थापना की, जैसे हिमालय सेवा संघ, गढ़वाल सेवा संघ, राज्य प्रजा परिषद आदि।
देश यात्रा की शुरुआत – 1938 में कॉंग्रेस के श्रीनगर गढ़वाल सम्मेलन में अपने शानदार उद्बोधन से वह नेहरू और वरिष्ठ नेताओं के प्रिय बन गए थे | जनता पर राज्य व अंग्रेजो द्वारा लगाये गये प्रतिबंधो से आहत होकर लगातार लोगो को जागरूक करने की कोशिश में लगे रहे | इसी क्रम में उन्होने 1939 में “टिहरी राज्य प्रजा मंडल” जो की राज्य सरकार अत्याचारों के विरुद्ध एक संस्था खड़ी की | अपने प्रभावी कार्य और कुशल नेतृत्व के कारण वह लोगो के बीच लोकप्रिय और राजशाही और अंग्रेजों में आलोकप्रिय होने लगे । इसी डर से कि जनता उनके नेत्रत्व में राज्य के खिलाफ आन्दोलन न कर दे, उन्हें आधिकारियों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और राज्य से निष्कासित कर दिया गया । उनके टिहरी आने पर पाबन्दी भी लगा दी गयी ।
शहादत की अनंत यात्रा के अंतिम 84 दिन
1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में हिस्सा लेकर प्रतिबंध के विरोध में टिहरी आने पर एक बार फिर उनकी गिरफ़्तारी हुई और 209 दिनों के लिए हिरासत में ले लिया गया | उन पर झूठे मुक़दमे चलाये गये और इन्ही मुकदमो के चलते उन्हें, 200 रूपए के जुर्माने के साथ 2 साल की सजा सुना दी गयी । जेल के अंदर उनके साथ बहुत ही अमानवीय व्यवहार किया गया । बार-बार कहने पर भी उनकी टिहरी के राजा के साथ सुनवाई न होने के कारण उन्होंने जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया | इस बात से बोखलाए शासनप्रशासन ने बहुत कोशिश उनका अनशन तोड़ने की लेकिन नकामयाब रहे । 84 दिन के कठिन उपवास के बाद आख़िरकार 25 जुलाई 1944 को ही श्री देव सुमन ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया । लेकिन हद तो तब हुई जब उनका शव रात के अँधेरे में एक कम्बल में लपेट कर भागीरथी नदी में फेंक दिया गया । जब ये खबर जनता तक पहुंची तो उनमे एक आक्रोश पैदा हो गया और राजशाही के खिलाफ आन्दोलन छिढ़ गया और राजशाही के अंत के साथ ही समाप्त हुआ |
श्रीदेव सुमन जी आजादी की लड़ाई के उन गिने चुने सेनानियों में थे जिंहोने देश के लिए भूख हड़ताल के चलते अपने प्राणों की आहुती दी | वावजूद उन्हे देश के इतिहास में वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह हकदार थे | स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में एक खास परिवार और पार्टी के योगदान के महिमामंडन में सुमन के बलिदान को उत्तराखंड तक सीमित कर दिया गया | बहुत से तत्कालीन सत्तालोपी आलोचकों ने उनके जनतंत्र प्राप्ति के संघर्ष को राजा के खिलाफ लड़ाई तक संकुचित करने की कोशिश की | वो बात और है कि समाज में उनकी शहादत के प्रति कर्तज्ञ्ता और उनके विचारों की स्वीकार्यता के चलते आने वाली सरकारों ने उनकी पुर्ण्य तिथि को सुमन दिवस सुमन दिवस के रूप में सम्मान दिया |