लंबे समय से उत्तराखंड की राजनीति में सबसे चर्चित मुद्दों में एक देवस्थानम बोर्ड विवाद का आज पटाक्षेप हो गया है धामी सरकार की अधिनियम वापिसी की घोषणा के साथ | अब अमूमन सबके मन में खयाल आना लाजिमी है कि बेहद सीमित संख्या वाले तीर्थ पुरोहित वर्ग की नाराजगी की खातिर भाजपा सरकार ने चार धाम प्रबंधन में सुधार से जुड़े इस अहम एक्ट पर रोल बैक करना पड़ा | आइए इस सवाल के जबाब से संबन्धित राजनैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक पहलुओं को समझने का प्रयास करते हैं
अधिनियम वापिसी का राजनैतिक पहलू-
देवस्थानम बोर्ड विवाद को लेकर सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक पहलू है आंदोलनकारी तीर्थ पुरोहितों में अधिकांशतया का भाजपा के समर्थक होना | ऐसे में उनकी नाराजगी पार्टी कार्यकर्ताओं के उत्साह को कम कर सकती है | हालांकि आंदोलनकारी तीर्थ पुरोहितों की संख्या बहुत अधिक नहीं लेकिन भाजपा रणनीतिकार किसी भी तरह से मीडिया और अन्य सोशल माध्यमों में इस मुद्दे पर बेवजह नकारात्मक प्रचार को बढ़ावा नहीं देना चाहती है ताकि प्रदेश सरकार के खिलाफ किसी भी तरह का जनविरोधी नज़रिया न बने | राजनैतिक विशेषज्ञों का भी मानना है कि चार धामों की व्यवस्थता के लिए देवस्थानम बोर्ड के गठन से बेशक तीर्थ यात्रियों की सुविधा में विस्तार आना तय था लेकिन प्रदेश की राजनीति में इसे लागू करने का स्थानीय स्तर पर फायदा नगण्य है वावजूद इसके विरोध करने वालों के कारण नुकसान अधिक अधिक है |
अधिनियम वापिसी के धार्मिक कारण–
चूंकि इस अधिनियम के तहत चार धामों और बड़े मंदिर के साथ साथ बहुत से ऐसे छोटे मंदिरों को भी शामिल किया गया है जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानीय पुरोहित वर्ग द्धारा संचालित किए जा रहे थे | निसंदेह इन परिवारों ने अपनी निष्ठा और मेहनत के बलबूते इन धार्मिक स्थलों को जिंदा रखा है | ऐसे में अधिनियम के चलते इन सबके भविष्य को लेकर संशय के बादल छा गए थे |
अधिनियम वापिसी की सामाजिक जरूरत-
चार धामों विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों के मंदिरों को इस अधिनियम के तहत लाने के बाद बड़ी संख्या में आवाजें अन्य धर्मों के धार्मिक स्थलों को छोड़ने के विरोध में उठने लगी थी | वहीं हरिद्वार, ऋषिकेश व अन्य मैदानी क्षेत्रों के मठ मंदिरों को इस अधिनियम से बाहर रखने पर भी बहुत सी आपत्तियाँ सामने आ रही थी | यह सब सामाजिक सद्भाव के लिए किसी भी तरह से ठीक नहीं कहा जा सकता है |